Bihar chhath parv
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वेदोन्मुखी सामाजिक चेतना का बीजमंत्र है छठ महापर्व

by | Nov 6, 2021 | संस्कृति |

प्रकृति से जुड़कर ईश्वर से एकात्म की प्राप्ति और जाति-वर्ग विहीन समरसता का सन्देश देता है यह सूर्य षष्ठी अनुष्ठान।

बिहार का महापर्व सूर्य षष्ठी, जिसे जनमानस सदियों से छठ पर्व के नाम से जानता और मनाता आया है, इस साल (2021) 8 नवंबर से शुरू होकर 11 नवंबर को सम्पन्न होगा। राज्य के कई भागों में इसे डाला छठ के नाम से भी जाना जाता है। बिहार के अलावा झारखण्ड (जो पहले बिहार का ही भाग था) और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी छठ पर्व की बड़ी महत्ता है।

वैदिक मान्यताओं का साक्षी

इतने व्यापक स्तर पर आज मनाया जाने वाला संभवतः यह अकेला पर्व है जो ऋग्वैदिक काल से जुड़ा है। ज्ञात हो कि ऋग्वैदिक काल में इन्द्र, सवित्र, सूर्य, अग्नि, वायु, तथा वरुण आदि देवता ही प्रमुख थे। अन्य आराध्य देवी-देवता थे उषा, मित्र, यम, सोम, सरस्वती, पृथ्वी, तथा रुद्र। कालांतर में वे गौण हो गए तथा शिव, विष्णु व अन्य देवी-देवता न केवल प्रमुख हो गए अपितु अधिक श्रेष्ठ भी हो गए।

ऋग्वैदिक काल में इन्द्र तथा अग्नि सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे, पर सवित्र और सूर्य भी प्रमुख देवता थे। उदित होते सूर्य यानी उषाकाल के सूर्य को ही सवित्र कहा गया है। अस्त होते हुए सूर्य को भी सवित्र माना गया है। ऋग्वेद के अति महत्वपूर्ण मंत्र, गायत्री मंत्र, के केंद्र में भी सवित्र ही हैं।

Bihar chhath parvध्यान से देखा जाय तो छठ महापर्व भी सूर्य के सवित्र रूप की ही उपासना का पर्व है। इस पर्व की पूर्णाहुति पहले अस्ताचल जाते सूर्य और फिर उदित होते सूर्य को अर्घ्य प्रदान कर संपन्न होती है। साथ ही, इस पर्व में षष्ठी माता अर्थात छठी मैया की उपासना भी की जाती है। एक प्रचलित मान्यता के अनुसार छठी मैया सूर्य की बड़ी बहन हैं, जबकि एक अन्य मान्यता के अनुसार वे सूर्य की माँ हैं। षष्ठी माता को ब्रह्मा जी की मानस पुत्री भी कहा जाता है।

माना जाता है कि छठ अनुष्ठान रामायण और महाभारत काल में भी संपन्न होता रहा है। कहते हैं कि वनवास से अयोध्या लौटने पर दीपावली के छह दिन बाद भगवान राम और माता सीता ने उपवास रखा था तथा माता सीता ने सूर्य षष्ठी की पूजा विधिवत की थी। महाभारत में ऋषि धौम्य की सलाह पर द्रौपदी और पांडवों द्वारा छठ का अनुष्ठान करने की बात कही जाती है। बाद में, लाक्षगृह से पांडवों के बच निकलने के बाद कुंती द्वारा की गई छठ पूजा की भी कथा है।

जातिविहीन समाज का द्योतक

आज के समय में, जब समाज जातियों और वर्गों में बुरी तरह विभाजित है, छठ की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। यह जाति-वर्ग के समस्त बंधनों को तोड़ डालता है। क्या ऊँची, क्या नीची, सभी जातियों के लोग गंगा, सोन, कोसी, आदि नदियों के घाटों पर और तालाबों के किनारे बिना किसी भेदभाव के एकत्र होते हैं और सूर्य देव व छठी मैया की पूजा अर्चना करते हैं। यह भी महत्वपूर्ण है कि इस पर्व में पूजा परिवार के ही लोगों द्वारा संपन्न की जाती है, न कि किसी पुरोहित के द्वारा। सामाजिक समानता और समरसता का इससे अप्रतिम उदाहरण पूरे भारतवर्ष में शायद ही कोई दूसरा हो।

सामाजिक चेतना का बीजमंत्र

छठ महापर्व में वह अद्भुत शक्ति है जो प्रतिवर्ष चार दिनों के लिए पूरे बिहार का मानो कायाकल्प कर देती है। आँखों से देखे बिना यह विश्वास करना कठिन हो जाता है कि यह वही बिहार है जहाँ गंदगी और बेतरतीबी का साम्राज्य फैला होता है और स्वच्छता के सभी निवेदन व्यर्थ चले जाते हैं।

कुछ समय के लिए यह पर्व बिहारवासियों में सामाजिक चेतना और सुव्यवस्था का अपूर्व संचार कर देता है। साथ ही, यह भी याद दिलाता है कि बिहार का जनमानस यदि चाहे तो आमूल-चूल परिवर्तन किसी भी क्षण ला सकता है। बस छठी मैया के नाम से एक संकल्प भर करने की देर है।

पर्यावरण और स्वच्छता का महापर्व

Bihar chhath parvछठ पूजा प्रकृति से सबसे निकटता से जुड़ी हुई है। साथ ही, अपने मूल स्वरूप में यह पूरी तरह प्रदूषण से मुक्त है। चूँकि इसमें दिखावे और आडम्बर का कोई स्थान नहीं है, इसलिए इसमें उपभोक्तावाद का कचरा भी नहीं है। छठ व्रती को अपने आराध्य से जुड़ने के लिए किसी माध्यम की भी आवश्यकता नहीं है।
यदि किसी बात का महत्त्व है तो वह है भीतर और बाहर की स्वछता और पवित्रता का। छठ के अवसर पर घर-बाहर सभी स्थानों को अच्छी तरह धो कर साफ़-सुथरा कर दिया जाता है। यहाँ तक कि गलियों से लेकर मुख्य सड़कों तक को साफ कर धो दिया जाता है। घाटों तक जाने वाले रास्तों को विशेष रूप से साफ़ किया जाता है। रास्तों पर रौशनी का भी उचित प्रबंध होता है।
बड़ी बात यह है कि यह सारी व्यवस्था न केवल प्रशासन, बल्कि स्थानीय लोग भी मिलकर करते हैं। छठ में स्वयंसेवकों की कोई कमी नहीं रहती। सब मिलजुलकर और बढ़चढ़कर अपना योगदान देते हैं।

(All pix under license from Shutterstock)

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